पंचांग क्या है पंचांग का परिचय एवं इतिहास
भारत का प्राचीनतम उपलब्ध साहित्य वैदिक साहित्य है। वैदिक कालीन भारतीय यज्ञ किया करते थे। यज्ञों के विशिष्ट फल प्राप्त करने के लिये उन्हें निर्धारित समय पर करना आवश्यक था इसलिये वैदिककाल से ही भारतीयों ने वेधों द्वारा सूर्य और चंद्रमा की स्थितियों से काल का ज्ञान प्राप्त करना शुरू किया। पंचांग सुधार समिति की रिपोर्ट में दिए गए विवरण (पृष्ठ 218) के अनुसार ऋग्वेद काल के आर्यों ने चांद्र सौर वर्षगणना पद्धति का ज्ञान प्राप्त कर लिया था।
वे 12 चांद्र मास तथा चांद्र मासों को सौर वर्ष से संबद्ध करने वाले अधिमास को भी जानते थे। दिन को चंद्रमा के नक्षत्र से व्यक्त करते थे। उन्हें चंद्रगतियों के ज्ञानोपयोगी चांद्र राशिचक्र का ज्ञान था। वर्ष के दिनों की संख्या 366 थी, जिनमें से चांद्र वर्ष के लिये 12 दिन घटा देते थे। रिपोर्ट के अनुसार ऋग्वेद कालीन आर्यों का समय कम से कम 1,200 वर्ष ईसा पूर्व अवश्य होना चाहिए। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की ओरायन के अनुसार यह समय शक संवत् से लगभग 4000 वर्ष पहले ठहरता है।
यजुर्वेद काल में भारतीयों ने मासों के 12 नाम मधु, माधव, शुक्र, शुचि, नमस्, नमस्य, इष, ऊर्ज, सहस्र, तपस् तथा तपस्य रखे थे। बाद में यही पूर्णिमा में चंद्रमा के नक्षत्र के आधार पर चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ तथा फाल्गुन हो गए। यजुर्वेद में नक्षत्रों की पूरी संख्या तथा उनकी अधिष्टात्री देवताओं के नाम भी मिलते हैं। यजुर्वेद में तिथि तथा पक्षों, उत्तर तथा दक्षिण अयन और विषुव दिन की भी कल्पना है। विषुव दिन वह है जिस दिन सूर्य विषुवत् तथा क्रांतिवृत्त के संपात में रहता है।
यजुर्वेद कालिक आर्यों को गुरु, शुक्र तथा राहु केतु का ज्ञान था। यजुर्वेद के रचनाकाल के विषय में विद्वानों में मतभेद है। यदि हम पाश्चात्य पक्षपाती, कीथ का मत भी लें तो यजुर्वेद की रचना 600 वर्ष ईसा पूर्व हो चुकी थी। इसके पश्चात् वेदांग ज्योतिष का काल आता है, जो ईo पूo 1,400 वर्षों से लेकर ईo पूo 400 वर्ष तक है। वेदांग ज्योतिष के अनुसार पाँच वर्षों का युग माना गया है, जिसमें 1830 माध्य सावन दिन, 62 चांद्र मास, 1860 तिथियाँ तथा 67 नाक्षत्र मास होते हैं।
युग के पाँच वर्षों के नाम हैं : संवत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर, अनुवत्सर तथा इद्ववत्सर1 इसके अनुसार तिथि तथा चांद्र नक्षत्र की गणना होती थी। इसके अनुसार मासों के माध्य सावन दिनों की गणना भी की गई है। वेदांग ज्यातिष में जो हमें महत्वपूर्ण बात मिलती है वह युग की कल्पना, जिसमें सूर्य और चंद्रमा के प्रत्यक्ष वेधों के आधार पर मध्यम गति ज्ञात करके इष्ट तिथि आदि निकाली गई है। आगे आनेवाले सिद्धांत ज्योतिष के ग्रंथों में इसी प्रणाली को अपनाकर मध्यम ग्रह निकाले गए हैं।
वेदांग ज्योतिष और सिद्धांत ज्योतिष काल के भीतर कोई ज्योतिष गणना का ग्रंथ उपलब्ध नहीं होता। किंतु इस बीच के साहित्य में ऐसे प्रमाण मिलते हैं जिनसे यह स्पष्ट है कि ज्योतिष के ज्ञान में वृद्धि अवश्य होती रही है, उदाहरण के लिये, महाभारत में कई स्थानों पर ग्रहों की स्थिति, ग्रहयुति, ग्रहयुद्ध आदि का वर्णन है। इससे इतना स्पष्ट है कि महाभारत के समय में भारतवासी ग्रहों के वेध तथा उनकी स्थिति से परिचित थे।
सिद्धांत ज्योतिष प्रणाली से लिखा हुआ प्रथम पौरुष ग्रंथ आर्यभट प्रथम की आर्यभटीयम् (शक संo 421) है। तत्पश्चात् बराहमिहिर (शक संo 427) द्वारा संपादित सिद्धांतपंचिका है, जिसमें पेतामह, वासिष्ठ, रोमक, पुलिश तथा सूर्यसिद्धांतों का संग्रह है। इससे यह तो पता चलता है कि बराहमिहिर से पूर्व ये सिद्धांतग्रंथ प्रचलित थे, किंतु इनके निर्माणकाल का कोई निर्देश नहीं है। सामान्यत: भारतीय ज्योतिष ग्रंथकारों ने इन्हें अपौरुषेय माना है। आधुनिक विद्वानों ने अनुमानों से इनके कालों को निकाला है और ये परस्पर भिन्न हैं। इतना निश्चित है कि ये वेदांग ज्योतिष तथा बराहमिहिर के समय के भीतर प्रचलित हो चुके थे। इसके बाद लिखे गए सिद्धांतग्रंथों में मुख्य हैं : ब्रह्मगुप्त (शक संo 520) का ब्रह्मसिद्धांत, लल्ल (शक संo 560) का शिष्यधीवृद्धिद, श्रीपति (शक संo 961) का सिद्धांतशेखर, भास्कराचार्य (शक संo 1036) का सिद्धांत शिरोमणि, गणेश (1420 शक संo) का ग्रहलाघव तथा कमलाकर भट्ट (शक संo 1530) का सिद्धांत-तत्व-विवेक।
गणित ज्योतिष के ग्रंथों के दो वर्गीकरण हैं: सिद्धांतग्रंथ तथा करणग्रंथ। सिद्धांतग्रंथ युगादि अथवा कल्पादि पद्धति से तथा करणग्रंथ किसी शक के आरंभ की गणनापद्धति से लिखे गए हैं। गणित ज्योतिष ग्रंथों के मुख्य प्रतिपाद्य विषय है: मध्यम ग्रहों की गणना, स्पष्ट ग्रहों की गणना, दिक्, देश तथा काल, सूर्य और चंद्रगहण, ग्रहयुति, ग्रहच्छाया, सूर्य सांनिध्य से ग्रहों का उदयास्त, चंद्रमा की शृंगोन्नति, पातविवेचन तथा वेधयंत्रों का विवेचन।
ज्योतिष अर्थात ज्योति-विज्ञान छह शास्त्रों में से एक है, इसे वेदों का नेत्र कहा गया है। ऐसी मान्यता है की वेदों का सही ज्ञान प्राप्त करने के लिए ज्योतिष में पारंगत होना आवश्यक है। महाप्रतापी त्रिलोकपति रावण जिसे चारो वेद कंठस्थ थे, ज्योतिष का सिद्ध ज्ञाता था। उसने रावण संहिता जैसा ग्रंथ रचा था जिसके बल पर उसने शनी और यमराज तक को अपना दास बना लिया था। ज्योतिष ज्ञान से ही नारद त्रिकालज्ञ हुए। भगवान कृष्ण, भीष्म पितामह, कर्ण आदि महान योद्धा भी ज्योतिष के अच्छे जानकार थे।
ब्रह्मा के मानस पुत्र भृगु ने भृगु-संहिता का प्रणयन किया। छठी शताब्दी में वरामिहिर ने वृहज्जातक, वृहत्सन्हिता और पंचसिद्धांतिका लिखी सातवी सदी में आर्यभट ने ‘आर्यभटीय की रचना की जो खगोल और गणित की जानकारियाँ है। ऋषि पराशर रचित होरा शास्त्र ज्योतिष का सिद्ध ग्रन्थ है। नील कंठी वर्षफल देखने का एक अच्छा ग्रन्थ है। मुहूर्त देखने के लिए मुहूर्त चिंतामणि एक अच्छा ग्रन्थ है। भाव प्रकाश, मानसागरी, फलदीपिका, लघुजातकम, प्रश्नमार्ग भी बहुप्रचलित ग्रन्थ है। बाल बोध ज्योतिष, लाल किताब, सुनहरी किताब, काली किताब और अर्थ मार्तंड अच्छी पुस्तकें है। कीरो व बेन्ह्म जैसे अंग्रेज ज्योतिषियों ने भी हस्तरेखा ज्योतिष पर भी किताबें लिखी। नस्त्रेदाम्स की भविष्यवाणी विश्व प्रसिद्ध है।
पंचांग का ज्ञान
पंचांग दिन को नामंकित करने की एक प्रणाली है। पंचांग के चक्र को खगोलीय तत्वों से जोड़ा जाता है। बारह मास का एक वर्ष और 7 दिन का एक सप्ताह रखने का प्रचलन विक्रम संवत से शुरू हुआ। महीने का हिसाब सूर्य व चंद्रमा की गति पर रखा जाता है। गणना के आधार पर हिन्दू पंचांग की तीन धाराएँ हैं- पहली चंद्र आधारित, दूसरी नक्षत्र आधारित और तीसरी सूर्य आधारित कैलेंडर पद्धति। भिन्न-भिन्न रूप में यह पूरे भारत में माना जाता है। एक साल में 12 महीने होते हैं। प्रत्येक महीने में 15 दिन के दो पक्ष होते हैं- शुक्ल और कृष्ण। प्रत्येक साल में दो अयन होते हैं। इन दो अयनों की राशियों में 27 नक्षत्र भ्रमण करते रहते हैं।
पंचांग भारतवर्ष की ज्योतिष विधा का प्रमुख दर्पण है। जिससे समय की विभिन्न इकाईयों ज्ञान प्राप्त किया जाता है संवत्,महीना,पक्ष,तिथि,दिन आदि का विधाओ को जानने पंचांग एक मात्र साधन है। धार्मिक व सभी प्रकार शादी, मुण्डन,भवन निर्माण आदि तिथियों के समय पर अनुष्ठान का ज्ञान पंचांग द्वारा लगाया सकता है। काल रूपी ईश्वर के विशेष अगंभूत पंचांग है तिथि, नक्षत्र, योग,दिन के ज्ञान को सादर प्रणाम किया जाता है। आज इतना दैनिक में विशेष प्रचलित राशि फल ,ग्रह परिवर्तन, त्यौहार व व्रत आदि इसी पंचांग से देखा जाता है। प्राचीन काल में पंचांग के विशेष पांच अग है वार, तिथि, नक्षत्र, योग, करण थे। दिन-रात, सूर्य का अस्त-उदय, धडी पल और भारतीय समय का ज्ञान ,मौसम परिवर्तन भी इसीसे देखा जाता है।
पंचांग के मुख्यत: तीन सिद्धान्त प्रयोग में लाए जाते हैं
सूर्य सिद्धांत – अपनी विशुद्धता के कारण सारे भारत में प्रयोग में लाया जाता है।
आर्य सिद्धांत – त्रावणकोर, मलावार, कर्नाटक में माध्वों द्वारा, मद्रास के तमिल जनपदों में प्रयोग किया जाता है।
ब्राह्मसिद्धांत – गुजरात एवं राजस्थान में प्रयोग किया जाता है।
ब्राह्मसिद्धान्त अब सूर्य सिद्धान्त के पक्ष में समाप्त होता जा रहा है। सिद्धान्तों में महायुग से गणनाएँ की जाती हैं, जो इतनी क्लिष्ट हैं कि उनके आधार पर सीधे ढंग से पंचांग बनाना कठिन है। अतः सिद्धान्तों पर आधारित ‘करण’ नामक ग्रन्थों के आधार पर पंचांग निर्मित किए जाते हैं, जैसे – बंगाल में मकरन्द, गणेश का ग्रहलाघव। ग्रहलाघव की तालिकाएँ दक्षिण, मध्य भारत तथा भारत के कुछ भागों में ही प्रयोग में लायी जाती हैं।
सिद्धान्तों में अंतर के दो महत्त्वपूर्ण तत्त्व हैं
वर्ष विस्तार के विषय में। वर्षमान का अन्तर केवल कुछ विपलों का है, और कल्प या महायुग या युग में चन्द्र एवं ग्रहों की चक्र-गतियों की संख्या के विषय में। यह केवल भारत में ही पाया गया है। आजकल का यूरोपीय पंचांग भी असन्तोषजनक है।
ज्योतिष शास्त्र के महत्वपूर्ण भाग
१. पंचांग अध्ययन
२. कुंडली अध्ययन
३. वर्षफल अध्ययन
४. फलित ज्योतिष
५. प्रश्न ज्योतिष
६. हस्त रेखा ज्ञान
७. टैरो कार्ड ज्ञान
८. सामुद्रिक शास्त्र ज्ञान
९. अंक ज्योतिष
१०. फेंगशुई
११. तंत्र मंत्र यंत्र ज्योतिष आदि
पंचांग
ज्योतिष सिखने के लिए पंचांग का ज्ञान होना परम आवश्यक है। पंचांग अर्थात जिसके पाँच अंग है तिथि, नक्षत्र, करण, योग, वार, इन पाँच अंगो के माध्यम से ग्रहों की चाल की गणित दर्शायी जाती है।
सौर मण्डल
सौर मण्डल वह मंडल जिसमे हमारे सभी ग्रह सूर्य के एक निश्चित मार्ग पर पश्चिम से पूर्व दिशा की ओर सूर्य के गिर्द परिक्रमा करते रहते है ज्योतिस शास्त्र के अनुसार सौर परिवार बुध, शुक्र, पृथ्वी,चंद्र ,मगंल,बृहस्पति ,शनियूरेनस, नेप्चून,प्लूटो।
बुध सबसे छोटा ग्रह और सूर्य के सबसे ज्यादा नजदीक है। सभी ग्रह स्वंय प्रकशित नही होते व सूर्य से प्रकाश लेकर अपनी कक्षा में सूर्य के गिर्द च्रक लगाते है। सूर्य से हमे प्रकाश,शक्ति, गर्मी,और जीवन मिलता है इस प्रकाश को पृथ्वी पर पहुँचने में साढ़े आठ मिनट लगभग है।
पृथ्वी को सूर्य के गिर्द घूमते लगभग सवा 365 दिन लगते है तब एक चक्कर पूरा होता है। बुध को 88 दिन में चककर लगाता है। शुक्र 225 दिनों में, मंगल 687 दिनों में, बृहस्पति लगभग पौने बारह वर्षो में, शनि साढ़े 29 वर्षो में, यूरेनस 84 वर्षो में, नेपचून 165 वर्षो में, प्लूटो 248 वर्षो एवं 5 मासो में सूर्य के गिर्द परिक्रमा पूरा करता है। सभी ग्रह अपने पथ पर क्रान्तिवृत से 7-8 दक्षिणोत्तर होकर सूर्य की परिक्रमा कर रहे है।
उपग्रह हमेशा अपने ग्रहो के गिर्द घूमते है। पृथ्वी हमेशा सूर्य के गिर्द घूमती है। इस लिए आकाश गतिशील स्थिति में रहता है। यह गति लगभग 30 किलोमीटर प्रति सेकंड है।
काल विभाजन
सूर्य के किसी स्थिर बिंदु (नक्षत्र) के सापेक्ष पृथ्वी की परिक्रमा के काल को सौर वर्ष कहते हैं। यह स्थिर बिंदु मेषादि है। ईसा के पाँचवे शतक के आसन्न तक यह बिंदु कांतिवृत्त तथा विषुवत् के संपात में था। अब यह उस स्थान से लगभग 23 पश्चिम हट गया है, जिसे अयनांश कहते हैं। अयनगति विभिन्न ग्रंथों में एक सी नहीं है। यह लगभग प्रति वर्ष 1 कला मानी गई है। वर्तमान सूक्ष्म अयनगति 50.2 विकला है। सिद्धांतग्रथों का वर्षमान 365 दिo 15 घo 31 पo 31 विo 24 प्रति विo है। यह वास्तव मान से 8। 34। 37 पलादि अधिक है। इतने समय में सूर्य की गति 8.27″ होती है। इस प्रकार हमारे वर्षमान के कारण ही अयनगति की अधिक कल्पना है।
वर्षों की गणना के लिये सौर वर्ष का प्रयोग किया जाता है। मासगणना के लिये चांद्र मासों का। सूर्य और चंद्रमा जब राश्यादि में समान होते हैं तब वह अमांतकाल तथा जब 6 राशि के अंतर पर होते हैं तब वह पूर्णिमांतकाल कहलाता है। एक अमांत से दूसरे अमांत तक एक चांद्र मास होता है, किंतु शर्त यह है कि उस समय में सूर्य एक राशि से दूसरी राशि में अवश्य आ जाय। जिस चांद्र मास में सूर्य की संक्रांति नहीं पड़ती वह अधिमास कहलाता है। ऐसे वर्ष में 12 के स्थान पर 13 मास हो जाते हैं। इसी प्रकार यदि किसी चांद्र मास में दो संक्रांतियाँ पड़ जायँ तो एक मास का क्षय हो जाएगा। इस प्रकार मापों के चांद्र रहने पर भी यह प्रणाली सौर प्रणाली से संबद्ध है।
चांद्र दिन की इकाई को तिथि कहते हैं। यह सूर्य और चंद्र के अंतर के 12वें भाग के बराबर होती है। हमारे धार्मिक दिन तिथियों से संबद्ध है। चंद्रमा जिस नक्षत्र में रहता है उसे चांद्र नक्षत्र कहते हैं। अति प्राचीन काल में वार के स्थान पर चांद्र नक्षत्रों का प्रयोग होता था। काल के बड़े मानों को व्यक्त करने के लिए युग प्रणाली अपनाई जाती है। वह इस प्रकार है:
कृतयुग (सत्ययुग) 17,28,000 वर्ष
द्वापर 12,96,000 वर्ष
त्रेता 8, 64,000 वर्ष
कलि 4,32,000 वर्ष
योग महायुग 43,20,000 वर्ष
कल्प 1000 महायुग 4,32,00,00,000 वर्ष
सूर्यसिद्धांत में बताए आँकड़ों के अनुसार कलियुग का आरंभ 17 फ़रवरी 3102 ईo पूo को हुआ था। युग से अहर्गण (दिनसमूहों) की गणना प्रणाली, जूलियन डे नंबर के दिनों के समान, भूत और भविष्य की सभी तिथियों की गणना में सहायक हो सकती है।
समय की निशिचत आधार होता है। समय का आधार सूर्य ही है। यह समय ही सूर्य के वश चक्रवत परिवतिर्त होता है। मनुष्य के सुख-दुःख, और जीवन -मरण काल पर आधरित होता है और उसी में लीन हो जाता है। भच्रक में भ्रमण करते हुए सूर्य के एक च्रक को एक वर्ष की संज्ञा दी जाती है। समय का विभाजन धंटे,मिनट और सेंकिड है ज्योतिष विज्ञान के रूप अहोरात्र,दिन,घड़ी,पल,विपल आदि है। हिन्दुओं में समय का बटवारा एक विशेष प्रणाली से होता है। यह तत्पर से आरंभ और कल्प पर समाप्त होता है। एक कल्प 4,32,0 000,000 समपात वर्षों के बराबर होता है। हिन्दुओं में एक दिन सूर्य उदय से अगले सूर्य उदय पर समाप्त होता है।
- १ पलक छपकना – 1 निमेष
- ३ निमेष – १ क्षण
- ५ क्षण – १ काष्ठ
- १५ काष्ठा – १ लधु
- १५ लधु – १ घटी (24 मिनट )
- २ -१/२ घटी – १ घंटा
- ६० घटी – २४ घण्टे
- २ घटी = १ मुहूर्त
- ३० मुहूर्त = 1 दिन-रात यानि अहोरात
- १ याम = एक दिन का चौथा हिस्सा ( 1 प्रहर )
- 8 प्रहर = 1 दिन -रात
- 7 दिन -रात = 1 सप्ताह
- 4 सप्ताह = 1 महीना
- 12 मास = 1 वर्ष (365 -366 दिनो)
घण्टो- मिनटों को हिन्दुओ धर्मशास्त्र के अनुसार पलों में परिवर्तन करना और उन नियम अनुसार देखना
- 1 मिनट – 2 -1/2 पल
- 4 मिनट – 10 पल
- 12 मिनट- 30 पळ
- 24 मिनट – 1 घटी
- 60 मिनट – 60 घटी यानि 1 घण्टा
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार समय
- 60 विकला = 1 कला
- 60 कला = 1 अंश
- 30 अंश = 1 राशि
- 12 राशि = मगण
- सूर्योदय से सूर्यास्त तक = एक दिन या दिनमान
- सूर्यास्त अगले दिन सूर्योदय = रात्रिमान
- उषाकाल = सूर्याद्य से 8 घटी पहले
- प्रात:काल = सूर्यादय से 3 घटी तक
- संध्याकाल =सूर्यास्त से 3 पहले तक
भारतीय पंचोंगों में चंद्र माह के नाम
- चैत्र
- वैशाख
- ज्येष्ठ
- आषाढ़
- श्रावण
- भाद्रपद
- आश्विन
- कार्तिक
- मार्गशीर्ष
- पौष
- माघ
- फाल्गुन
नक्षत्र के नाम
- 01. अश्विनी
- 02. भरणी
- 03. कृत्तिका
- 04. रोहिणी
- 05. मॄगशिरा
- 06. आर्द्रा
- 07. पुनर्वसु
- 08. पुष्य
- 09. अश्लेशा
- 10. मघा
- 11. पूर्वाफाल्गुनी
- 12. उत्तराफाल्गुनी
- 13. हस्त
- 14. चित्रा
- 15. स्वाती
- 16. विशाखा
- 17. अनुराधा
- 18. ज्येष्ठा
- 19. मूल
- 20. पूर्वाषाढा
- 21. उत्तराषाढा
- 22. श्रवण
- 23. धनिष्ठा
- 24. शतभिषा
- 25. पूर्व भाद्रपद
- 26. उत्तर भाद्रपद
- 27. रेवती 28.
योग के नाम
- 01. विष्कम्भ
- 02. प्रीति
- 03. आयुष्मान्
- 04. सौभाग्य
- 05. शोभन
- 06. अतिगण्ड
- 07. सुकर्मा
- 08. धृति
- 09. शूल
- 10. गण्ड
- 11. वृद्धि
- 12. ध्रुव
- 13. व्याघात
- 14. हर्षण
- 15. वज्र
- 16. सिद्धि
- 17. व्यतीपात
- 18. वरीयान्
- 19. परिघ
- 20. शिव
- 21. सिद्ध
- 22. साध्य
- 23. शुभ
- 24. शुक्ल
- 25. ब्रह्म
- 26. इन्द्र
- 27. वैधृति
करण के नाम
- 01. किंस्तुघ्न
- 02. बव
- 03. बालव
- 04. कौलव
- 05. तैतिल
- 06. गर
- 07. वणिज
- 08. विष्टि
- 09. शकुनि
- 10. चतुष्पाद
- 11. नाग
तिथि के नाम
- 01. प्रतिपदा
- 02. द्वितीया
- 03. तृतीया
- 04. चतुर्थी
- 05. पञ्चमी
- 06. षष्ठी
- 07. सप्तमी
- 08. अष्टमी
- 09. नवमी
- 10. दशमी
- 11. एकादशी
- 12. द्वादशी
- 13. त्रयोदशी
- 14. चतुर्दशी
- 15. पूर्णिमा
- 16. अमावस्या
राशि के नाम
- 01. मेष
- 02. वृषभ
- 03. मिथुन
- 04. कर्क
- 05. सिंह
- 06. कन्या
- 07. तुला
- 08. वृश्चिक
- 09. धनु
- 10. मकर
- 11. कुम्भ
- 12. मीन
आनन्दादि योग के नाम
- 01. आनन्द (सिद्धि)
- 02. कालदण्ड (मृत्यु)
- 03. धुम्र (असुख)
- 04. धाता (सौभाग्य)
- 05. सौम्य (बहुसुख)
- 06. ध्वांक्ष (धनक्षय)
- 07. केतु (सौभाग्य)
- 08. श्रीवत्स (सौख्यसम्पत्ति)
- 09. वज्र (क्षय)
- 10. मुद्गर (लक्ष्मीक्षय)
- 11. छत्र (राजसंमान)
- 12. मित्र (पुष्टि)
- 13. मानस (सौभाग्य)
- 14. पद्म (धनागम)
- 15. लुम्ब (धनक्षय)
- 16. उत्पात (प्राणनाश)
- 17. मृत्यु (मृत्यु)
- 18. काण (क्लेश)
- 19. सिद्धि (कार्यसिद्धि)
- 20. शुभ (कल्याण)
- 21. अमृत (राजसंमान)
- 22. मुसल (धनक्षय)
- 23. गद (भय)
- 24. मातङ्ग (कुलवृद्धि)
- 25. रक्ष (महाकष्ट)
- 26. चर (कार्यसिद्धि)
- 27. सुस्थिर (गृहारम्भ)
- 28. प्रवर्द्धमान (विवाह)
सम्वत्सर के नाम
- 01. प्रभव
- 02. विभव
- 03. शुक्ल
- 04. प्रमोद
- 05. प्रजापति
- 06. अङ्गिरा
- 07. श्रीमुख
- 08. भाव
- 09. युवा
- 10. धाता
- 11. ईश्वर
- 12. बहुधान्य
- 13. प्रमाथी
- 14. विक्रम
- 15. वृष
- 16. चित्रभानु
- 17. सुभानु
- 18. तारण
- 19. पार्थिव
- 20. व्यय
- 21. सर्वजित्
- 22. सर्वधारी
- 23. विरोधी
- 24. विकृति
- 25. खर
- 26. नन्दन
- 27. विजय
- 28. जय
- 29. मन्मथ
- 30. दुर्मुख
- 31. हेमलम्बी
- 32. विलम्बी
- 33. विकारी
- 34. शर्वरी
- 35. प्लव
- 36. शुभकृत्
- 37. शोभन
- 38. क्रोधी
- 39. विश्वावसु
- 40. पराभव
- 41. प्लवङ्ग
- 42. कीलक
- 43. सौम्य
- 44. साधारण
- 45. विरोधकृत्
- 46. परिधावी
- 47. प्रमाथी
- 48. आनन्द
- 49. राक्षस
- 50. नल
- 51. पिङ्गल
- 52. काल
- 53. सिद्धार्थ
- 54. रौद्र
- 55. दुर्मति
- 56. दुन्दुभी
- 57. रुधिरोद्गारी
- 58. रक्ताक्षी
- 59. क्रोधन
- 60. क्षय
पंचक अध्ययन
पंचक में भी हो सकते है शुभ कार्य
पंचक अर्थात ऐसा समय जो प्रत्येक माह में अपना एक अलग महत्व रखता है। कुछ लोग अज्ञान के कारण पंचको को पूर्ण अशुभ समय मान बैठते है परन्तु ऐसा नही है। पंचको में शुभ कार्य भी किये जा सकते है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार पंचक तब लगते है जब ब्रह्मांड में चन्द्र ग्रह धनिष्ठा नक्षत्र के तृतीय चरण में प्रवेश करते है..इस तरह चन्द्र ग्रह का कुम्भ और मीन राशी में भ्रमण पंचकों को जन्म देता है। कई बार एक अंग्रेजी महीने में पंचक दो बार आ जाते है।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार चन्द्र ग्रह का धनिष्ठा नक्षत्र के तृतीय चरण और शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद तथा रेवती नक्षत्र के चारों चरणों में भ्रमण काल पंचक काल कहलाता है। पंचको के बारे में एक पोराणिक कथा है, कहते है की एक बार मंगल ग्रह ने रेवती नक्षत्र के साथ दुष्कर्म कर दिया था, जिसके कारण रेवती अशुद्ध हो गयी थी और परिजनों ने उसके हाथ से जल ग्रहण कर लिया था तब देवताओं के गुरु कहे जाने ब्रहस्पति ने एक सभा बुलाई और जल ग्रहण करने वाले सभी परिजनों का बहिष्कार कर दिया। तब श्रवण नक्षत्र ने यह अपील की कि में तो पिता के कहने पर जल लेने चला गया था। मेरा क्या कसूर है? तब श्रवण नक्षत्र की अपील पर उसे छोड़ दिया गया और श्रवण के पिता धनिष्ठा नक्षत्र, बड़ी बहन पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र, छोटी बहन उत्तराभाद्रपद नक्षत्र, माता शतभिषा नक्षत्र और पत्नी रेवती नक्षत्र को पंचक होना करार दे दिया गया।कहते है कि तभी से इस दुष्कर्म के कारण क्रूर और पापी ग्रह माना जाने लगा।
अगर आधुनिक खगोल विज्ञान की दृष्टि से देखें तो ३६० अंशो वाले भचक्र में पृथ्वी जब ३०० अंश से ३६० अंश के बिच भ्रमण कर बीच रही होती है तो उस अवधि में धरती पर चन्द्रमा का प्रभाव अत्यधिक होता है।उसी अवधि को पंचक काल कहते है। शास्त्रों में पांच निम्नलिखित पाँच कार्य ऐसे बताये गये है जिन्हें पंचक काल के दोरान नही किया जाना चाहिए।
- लकड़ी एकत्र करना या खरीदना
- मकान पर छत डलवाना
- शव जलाना
- पलंग या चारपाई बनवाना.
- दक्षिण दिशा की तरफ यात्रा करना
ये पांचो ऐसे कार्य है जिन्हें पंचक के दौरान न करने की सलाह प्राचीन ग्रन्थों में दी गयी है। परन्तु आज का समय प्राचीन समय से बहुत अधिक भिन्न है। वर्तमान समय में समाज की गति बहुत तेज है इसलिए आधुनिक युग में उपरोक्त कार्यो को पूर्ण रूप से रोक देना कई बार असम्भव हो जाता है। परन्तु शास्त्रकारों ने शोध करके ही उपरोक्त कार्यो को पंचक काल में न करने की सलाह दी है। ऐसी भी मान्यता है की अगर उपरोक्त वर्जित कार्य पंचक काल में करने की अनिवार्यता उपस्थित हो जाये तो निम्नलिखित उपाय करके उन्हें किया जा सकता है-
- लकड़ी का समान खरीदना जरूरी हो तो खरीद ले किन्तु पंचक काल समाप्त होने पर गायत्री माता के नाम पर हवन कराए. इससे पंचक दोष दूर हो जाता है।
- मकान पर छत डलवाना अगर जरूरी हो तो मजदूरों को मिठाई खिलने के पश्चात ही छत डलवाने का कार्य करे…
- अगर पंचक काल में शव को धन करना अनिवार्य हो तो शव दाह करते समय पाँच अलग पुतले बनाकर उन्हें भी आवश्य जलाएं
- पंचक काल में अगर पलंग या चारपाई लेना जरूरी हो तो पंचक काल की समाप्ति के पश्चात ही इस पलंग या चारपाई का प्रयोग करे..
- पंचक काल में अगर दक्षिण दिशा की यात्रा करना अनिवार्य हो तो हनुमान मंदिर में फल चदा कर यात्रा प्रारम्भ करे. ऐसा करने से पंचक दोष दूर हो जाता है।
हिन्दू पद्ति के अनुसार पाँच वर्षमान भारतवर्ष का प्रचलित है।
1 सौरवर्ष
2 चांद्रवर्ष
3 नाक्षत्रवर्ष
4 सावनवर्ष
5 बाहसर्पत्य
सौरवर्ष
जितने समय में सूर्य बारह राशियों का भम्रण करता है उसे सौरवर्ष कहते है। सूर्य एक राशि से दूसरी में प्रवेश करने में ३०अश लगता है यानि एक मास यह चक्र संक्रान्ति से संक्रान्ति तक होता है। सौरवर्ष का पूर्ण समय 365 दिन 6 घंटे 9 मिनट 11 सैकिण्ड होते है।
इन पांच अंगों का नाम निम्नलिखित है
1. तिथि
2. नक्षत्र
3. योग
4. करण
5. वार (सप्ताह के सात दिनों के नाम)
वैदिक पञ्चाङ्ग
हिन्दू कैलेण्डर के सभी पांच तत्वों को साथ में पञ्चाङ्ग कहते हैं। (संस्कृत में: पञ्चाङ्ग = पंच (पांच) + अंग (हिस्सा)). इसलिए जो हिन्दू कैलेण्डर सभी पांच अँगों को दर्शाता है उसे पञ्चाङ्ग कहते हैं। दक्षिण भारत में पञ्चाङ्ग को पञ्चाङ्गम कहते हैं।
भारतीय कैलेण्डर
जब हिन्दू कैलेण्डर में मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन त्योहार और राष्ट्रीय छुट्टियों शामिल हों तो वह भारतीय कैलेण्डर के रूप में जाना जाता है।
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भारत का राष्ट्रीय पंचांग (कैलेण्डर) क्या है?
- ग्रैगेरियन कैलेण्डर के साथ विक्रम संवत
- ग्रैगेरियन कैलेण्डर के साथ शक संवत
- शक संवत
- विक्रम संवत
श्रीकृष्ण संवत् अन्य -8 संवत्
- श्रीकृष्ण संवत् =5234
- कलि संवत् =5100
- बुद संवत् =2542
- महावीर संवत् 2025
- शाका संवत् =1921
- हिजरी संवत् =1420
- फसली संवत् =1407
- सन ई= 1999
- नानकशाही =531
शक संवत्
शक संवत भारत का प्राचीन संवत है जो ७८ ई. से आरम्भ होता है।शक संवत भारत का राष्ट्रीय कैलेंडर है। शक संवत् के विषय में बुदुआका मत है कि इसे उज्जयिनी के क्षत्रप चेष्टन ने प्रचलित किया। शक राज्यों को चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने समाप्त कर दिया पर उनका स्मारक शक संवत् अभी तक भारतवर्ष में चल रहा है।
विक्रम संवत् के 135 वर्ष के बाद राजा शालिवाहन ने इस का आरम्भ किया है और भारत सरकार ने भी इसी संवत् को मान्यता दी इसका आरम्भ 22 मार्च यानि हिन्दू मास चैत्र से होता है ।
विक्रमी संम्वत्
हिन्दू पंचांगमें समय गणना की प्रणाली का नाम है। यह संवत ५७ ईपू आरम्भ होती है। इसका प्रणेता सम्राटविक्रमादित्यको माना जाता है।कालिदासइस महाराजा के एक रत्न माने जाते हैं।बारह महीने का एक वर्ष और सात दिनका एक सप्ताह रखने का प्रचलन विक्रम संवत से ही शुरू हुआ| इसका काल का शुभारम्भ ईसा से 57 वर्ष पूर्व चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा तिथि से माना जाता है। पंचांग में इसी प्रणाली का प्रयोग किया जाता है और यह चन्द्र मास पर आधारित है तथा इस में सौरमासो का भी समावेश रहता है। चन्द्र वर्ष का आरम्भ चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिप्रदा तिथि से किया जाता है
गणना प्रणाली
पूरे वृत्त की परिधि 360 मान ली जाती है। इसका 360 वाँ भाग एक अंश, का 60वाँ भाग एक कला, कला का 60वाँ भाग एक विकला, एक विकला का 60वाँ भाग एक प्रतिविकला होता है। 30 अंश की एक राशि होती है। ग्रहों की गणना के लिये क्रांतिवृत्त के, जिसमें सूर्य भ्रमण करता दिखलाई देता है, 12 भाग माने जाते हैं। इन भागों को मेष, वृष आदि राशियों के नाम से पुकारा जाता है। ग्रह की स्थिति बतलाने के लिये मेषादि से लेकर ग्रह के राशि, अंग, कला, तथा विकला बता दिए जाते हैं। यह ग्रह का भोगांश होता है। सिद्धांत ग्रंथों में प्राय: एक वृत्तचतुर्थांश (90 चाप) के 24 भाग करके उसकी ज्याएँ तथा कोटिज्याएँ निकाली रहती है। इनका मान कलात्मक रहता है। 90 के चाप की ज्या वृहद्वृत्त का अर्धव्यास होती है, जिसे त्रिज्या कहते हैं। इसको निम्नलिखित सूत्र से निकालते हैं :
परिधि = (३९२७ / १२५०) x व्यास
इस प्रकार त्रिज्या का मान 3438 कला है, जो वास्तविक मान के आसन्न है। चाप की ज्या आधुनिक प्रणाली की तरह अर्धज्या है। वस्तुत: वर्तमान त्रिकोणामितिक निष्पत्तियों का विकास भारतीय प्रणाली के आधार पर हुआ है और आर्यभट को इसका आविष्कर्ता माना जाता है। यदि किन्हीं दो भिन्न आकार के वृत्तों के त्रिकोणमितीय मानों की तुलना करना अपेक्षित होता है, तो वृहद् वृत्त की त्रिज्या तथा अभीष्ट वृत्त की निष्पत्ति के आधार पर अभीष्ट वृत्त की परिधि अंशों में निकाली जाती है। इस प्रकार मंद और शीघ्र परिधियों में यद्यपि नवीन क्रम से अंशों की संख्या 360 ही है, तथापि सिद्धांतग्रंथों में लिखी हुई न्यून संख्याएँ केवल तुलनात्मक गणना के लिये हैं।
कैसे करें पंचांग गणना
तिथिर्वारश्च नक्षत्र योगः करण मेव च।
एतेषां यत्र विज्ञानं पंचांग तन्निगद्यते।।
तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण की जानकारी जिसमें मिलती हो, उसी का नाम पंचांग है। पंचांग अपने प्रमुख पांच अंगों के अतिरिक्त हमारा और भी अनेक बातों से परिचय कराता है। जैसे ग्रहों का उदयास्त, उनकी गोचर स्थिति, उनका वक्री और मार्गी होना आदि। पंचांग देश में होने वाले व्रतोत्सवों, मेलों, दशहरा आदि का ज्ञान कराता है। इसलिए पंचांग का निर्माण सार्वभौम दृष्टिकोण के आधार पर किया जाता है।
काल के शुभाशुभत्व का यथार्थ ज्ञान भी पंचांग से ही होता है। साथ ही इसमें मौसम के साथ-साथ बाजार में तेजी तथा मंदी की स्थिति का उल्लेख भी रहता है। ज्योतिषगणित के आधार पर निर्मित प्रतिष्ठित पंचांगों में संभावित ग्रहणों तथा विभिन्न योगों का विवरण रहता है। एक अच्छे पंचांग में विवाह मुहूर्त, यज्ञोपवीत, कर्णवेध, गृहारंभ, देवप्रतिष्ठा, व्यापार, वाहन क्रय, लेने-देन तथा अन्यान्य मुहूर्त और समय शुद्धि, आकाशीय परिषद में ग्रहों के चुनाव आदि का उल्लेख भी होता है।
पंचांग का सर्वप्रथम निर्माण कब और कहां हुआ यह कहना कठिन है। लेकिन कहा जाता है कि इसका निर्माण सर्वप्रथम भगवान ब्रह्मा ने किया
सिद्धांत सहिता होरारूप स्कन्धत्रयात्मकम्।
वेदस्य निर्मल चक्षु योतिश्शास्त्रमकल्मषम।।
विनैतदाखिलं श्रौतं स्मार्तं कर्म न सिद्धयति।
तस्माज्जगद्वितायेदं ब्रह्मणा निर्मितं पुरा।।
सतयुग के अंत में सूर्य सिद्धांत की रचना भगवान सूर्य के आदेशानुसार हुई थी, जिसमें कालगणना का बहुत ही सुंदर और सटीक वर्णन मिलता है। काल की व्याख्या करते हुए सूर्यांशपुरुष ने कहा है—
लोकानामंतकृत्काल कालोऽन्य कलनात्मकः।
स द्विधा स्थूलसूक्ष्मत्वान्मूत्र्तश्चामूर्त उच्यते।।
एक काल लोकों का अंतकारी अर्थात् अनादि है और दूसरा काल कलनात्मक ज्ञान (गणना) करने योग्य है। खंड काल भी स्थूल और सूक्ष्म के भेद से मूर्त और अमूर्त रूप में दो प्रकार का होता है। त्रुट्यादि की अमूर्त संज्ञा गणना में नहीं आती।
प्राणादि मूर्तकाल को सभी गणना में लेते हैं। 6 प्राण का एक पल, 60 पलों की एक घटी और 60 घटियों का एक अहोरात्र होता है। एक दिन को प्राकृतिक इकाई माना गया। ग्रह गणनार्थ प्राकृतिक इकाई को अहर्गण के नाम से जाना जाता है। सूर्य सिद्धांत, परासर सिद्धांत, आर्य सिद्धांत, ब्रह्म सिद्धांत, ब्रह्मगुप्त सिद्धांत, सौर पक्ष सिद्धांत, ग्रह लाघव, मकरंदगणित आदि के रचनाकारों के अपने-अपने अहर्गण हैं।
शाके 1800 में केतकरजी ने भारतीय तथा विदेशी ग्रह गणना का तुलनात्मक अध्ययन कर एक नए सिद्धांत का प्रतिपादन किया, जिसे सूक्ष्म दृश्य गणित के नाम से जाना जाता है। सभी सिद्धांत ग्रंथों में अपने-अपने ढंग से ग्रह गणना करने की विधियां लिखी हैं। किंतु इनमें परस्पर मतभेद है।
शास्त्रसम्मत शुद्ध पंचांग गणना का मुख्य आधार ग्रह गणना ही है। वर्तमान समय में अधिकांश पंचांग सूक्ष्म दृश्य गणित के आधार पर बनाए जाते हैं। तिथि स्पष्ट करने की विधि
अर्कोन चंद्र लिप्ताभ्यास्तयेया भोग भाजिताः।
गतागम्याश्च षष्टिघ्रा नाडियौ भुक्तयंतरोद्धताः।।
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