Body and Soul | शरीर और शरीरी आत्मा

शरीर और शरीरी आत्मा। शरीर के बिना शरीरी नहीं रह सकता। शरीरी के बिना शरीर नहीं रह सकता। आप लोग कहेंगे कि शरीरी के बिना शरीर नहीं रह सकता ये बात तो समझ में आती है क्योंकि जब कोई व्यक्ति मर जाता है यानी शरीरी आत्मा चला जाता है तो शरीर ढह जाता है। अर्थात् आत्मा के बिना शरीर नहीं रह सकता, ये बात तो ठीक है, समझ में आती है लेकिन बिना शरीर के आत्मा भी नहीं रह सकती, ये बात कुछ विचित्र है। विचित्र नहीं है, बड़ी सीधी बात है। ये आत्मा जब इस शरीर को छोड़ती है तो छोड़ने से पहले एक शरीर धारण कर लेती है, तब छोड़ती है। वो सूक्ष्म शरीर होता है। आपको दिखाई नहीं पड़ता, ये बात अलग है। 

बहुत प्रकार के शरीर होते हैं। तीन शरीर तो प्रत्यक्ष ही हैं, आपके साथ लगे हुए हैं। स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर, कारण शरीर। एक आतिवाहिक शरीर भी होता है। किन्तु शरीर के बिना कभी आत्मा नहीं रहती। इस शरीर में रहे या दूसरे शरीर में जाये लेकिन इस शरीर को छोड़ के, दूसरे शरीर में नहीं जाती। इसी शरीर में रहकर दूसरा शरीर धारण कर तब जाती है बाहर। जैसे साँप का केंचुल होता है। साँप अपने ऊपर के चमड़े को छोड़ता रहता है, कुछ सालों बाद। आप लोगों ने देखा होगा केंचुल। लेकिन वो केंचल यानी अपने शरीर के ऊपर का चमड़ा तब छोड़ता है जब उसके नीचे का चमड़ा आ जाय, ऐसे नहीं। तो इसी प्रकार ये आत्मा भी शरीर धारण करके शरीर छोड़ती है। और शरीर ही नहीं। शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि सब साथ जाते हैं।

स यदाऽस्माच्छरीरादुत्क्रामति सहैवैतैः सर्वैरुत्क्रामति।
(कौषीतकी उप. ३-४)

वेद कहता है ये इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि सब साथ जाते हैं। अकेली सत्ता कैसे जायेगी और अगर शरीर रहित हो जाय सत्ता, तो फिर तो बंधन ही समाप्त हो जाय उसका। बन्धन तो है, झगड़ा तो ये है। शरीर से मुक्त होने का नाम मुक्ति। और केवल भोले-भाले अद्वैती निर्विशेष ब्रह्मावलम्बी ज्ञानी ही इस शरीर अथवा किसी शरीर, किसी मन, किसी बुद्धि से मुक्त हो जाते हैं। भक्त नहीं मुक्त होता। 

भक्त को भगवान् का अलौकिक चिन्मय देह मिलता है, चिन्मय अलौकिक मन मिलता है, अलौकिक बुद्धि मिलती है और अलौकिक लोक मिलता है। वो चिन्मय देह स्वर्ग में भी नहीं है। स्वर्ग के देह को भी दिव्य देह कहते हैं। स्वर्ग के देह में ऐसी खुश्बू है कि अगर आपकी नाक में आ जाय तो आपका हार्ट फेल हो जाय। लेकिन वो भी गंदा है, नश्वर है, भौतिक है, मायिक है। भगवान् के लोक का शरीर जो है वो चिन्मय है और भगवान् का शरीर भगवान् ही है

आनन्दचिन्मय सदुज्ज्वलविग्रहस्य गोविन्दमादि पुरुषं तमहं भजामि॥
(ब्रह्म संहिता ५-३२)

भगवान् के शरीर से महापुरुष के शरीर में अन्तर है लेकिन हैं दोनों चिन्मय ही, जिनका वर्णन शब्दों में नहीं हो सकता। अस्तु, भक्त को भी शरीरेन्द्रिय मन, बुद्धि मिलता है। भगवत्प्राप्ति के बाद, गोलोक में भी मिलता रहेगा। लेकिन ज्ञानी निर्गुण निर्विशेष निराकार ब्रह्म का उपासक है। वो कहता है मुझे शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि कुछ नहीं चाहिए, मैं तंग आ गया इन से। इसलिये उसको इनसे छुट्टी दे दी जाती है। तो वो बेचारा, वो ब्रह्मानंद, प्रेमानंद का अनुभव इन्द्रियों से, मन से, बुद्धि से नहीं कर पाता। उसको केवल स्वरूपानंद मिलता है यानी आत्मा ही रह जाती है, शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि सब माइनस।


तो अब आप समझ गये कि शरीर के बिना शरीरी नहीं रहता। केवल ब्रह्म ज्ञानी सिद्ध महापुरुष के भी शरीर छोड़ने के बाद, प्रारब्ध भोग समाप्त होने के बाद, अर्थात् ब्रह्मलीन अवस्था में ये प्राकृत शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि समाप्त हो जाते हैं अन्यथा इस आत्मा के साथ शरीर इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि सदा रहेंगे, वो चाहे जहाँ जाये। स्वर्ग में जाये, नरक में जाये, मृत्युलोक में आवे, चौरासी लाख में कहीं जाय। बिना शरीर के १/१०० सेकण्ड को भी आत्मा नहीं रह सकती। तो बिना शरीर के आत्मा नहीं रह सकती, बिना आत्मा के शरीर नहीं रह सकता। ये दोनों का बड़ा अभिन्न सम्बन्ध है। 

जबकि आत्मा नित्य है, दिव्य है, चेतन है, और शरीर अनित्य है, नश्वर है, पंच भौतिक है। इतना बड़ा अन्तर है, वो चाहे सूक्ष्म शरीर हो, चाहे कारण शरीर हो, चाहे आतिवाहिक शरीर हो, कोई शरीर हो, सब भौतिक। हाँ तो 'हम दो', यानी एक 'हम' माने आत्मा, एक 'हम' माने शरीर। या यों कह दीजिये एक 'हम' माने आत्मा और एक 'हम' माने शरीर+आत्मा। लेकिन अधिक अच्छा यही कहना होगा कि एक 'हम' आत्मा, एक 'हम' शरीर। 

देखिये आप लोग क्या बोलते हैं ? मैंने देखा, मैंने सुना. मैंने सूंघा, मैंने रस पिया, मैंने स्पर्श किया, मैं गया, मैंने पकड़ा। क्या मतलब ? इसका मतलब ? इसका मतलब, ये मैं शरीर हूँ। हाँ, मैंने देखा और क्या? मैंने माने क्या? मैं शरीर हूँ। अगर मैं आँख नहीं हूँ तो मैं ऐसे क्यों बोलता हूँ, मैंने देखा? आँख ने देखा ना? हाँ। हाँ तो मैं आंख हूँ। हाँ, बिल्कुल हम लोग क्या बेपढ़े लिखे गँवार हैं? हमने सब पुस्तकों में पढ़ा है, ऐसा लिखा है। मैंने देखा, मैंने सुना, मैंने सूँघा, उसने देखा, उसने सुना, उसने सूँघा। अच्छा आप ये भी तो बोलते होंगे, मैंने अपनी आँखों से देखा है। मैंने अपने कानों से सुना है। हाँ, हाँ, ये भी बोलते हैं। 

ये तो विरोधी बात हो गई। आप कहते हैं मैंने अपने कानों से यानी 'मैं' अलग चीज है कोई? अपने माने 'मैं' के। 'मैं' आत्मा, उसका कान, उससे सुना है। सुनने वाला कान नहीं हुआ, मैं हूँ। मैंने अपने कान से सुना है। मैंने अपनी आँखों से देखा है। अब ये आप यहाँ पर बोल रहे हैं अपने आपको। हाँ साहब, ऐसा भी बोलते हैं हम लोग। तो दोनों सही कैसे हैं? ये तो हमने कभी सोचा ही नहीं। हम लोग बहुत काबिल हैं न? बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ ले-ले के बैठ जाते हैं और कभी ये नहीं सोचा कि दोनों वाक्य सही कैसे हैं ? 


या तो हम ये बोलें मेरी आँख ने देखा है, मेरे कान ने सुना है। और मैंने सुना है अगर ये कहते हैं तो 'मेरे कान' क्यों बोलते हैं फिर? हाँ जी, व्यवहार में सब चलता है। हूँ, चलता है, चलने दो। हमें कोई आपत्ति नहीं। हमें तो इतना केवल कहना है कि हम लोग मैं को भी 'हम' कहते हैं और अपनी इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि को भी मैं' कहते हैं। मैंने सोचा, मैंने सोचा। तो आप मन हैं ? नहीं नहीं, मेरा मन कर रहा है रसगुल्ला खाऊं। मेरा मन ? अभी आप कह रहे थे मैंने । हाँ जी, ऐसे ही बोलते हैं, हम लोग का कुछ ढीला है इसलिये। हाँ, बड़े-बड़े विद्वान ऐसे ही बोलते हैं। मैंने सोचा, मैंने जाना, मैंने देखा।

तो एक 'मैं' असली। ध्यान दो, गँवारी भाषा में समझा रहा हूँ। एक 'मैं' असली आत्मा और एक 'मैं' नकली शरीर। असली मैं', हम लोग अनुभव भी करते हैं। देखिये आप लोग इस समय शरीर को 'मैं' कह रहे हैं। जब आप सो जायेंगे और सपना देखेंगे, तब आप लोग मन को 'मैं' कहेंगे। आज मैं सोया तो मैंने क्या देखा कि मैं जा रहा हूँ। वहाँ फिर उसको हमने झापड़ लगाया। फिर वहाँ हमने जम्प किया, फिर वहाँ हमको राजा बना दिया गया, फिर वहाँ ऐसा हुआ, फिर वहाँ मैं खूब पिटा। 

ये सब आप जो देख रहे हैं आँख नहीं है। जी हाँ, आँख तो बंद है, बिस्तर में और आप देख रहे हैं? बिल्कल देख रहे हैं जी, जैसे यहाँ देखते हैं। ऐसे ही देखा सपने में, ऐसे ही सुना, ऐसे ही सूँघा, ऐसे ही आनन्द, दुःख, भय सब कुछ ऐसे ही अनुभव में आया। तो फिर आप शरीरेन्द्रिय नहीं हैं? हां, स्वप्न से तो यही सिद्ध होता है। अच्छा। अब आप उसके बाद और भी चले गये गहरी नींद में, सुप्त अवस्था, उसमें मन भी निर्विकल्प हो गया, बुद्धि भी शून्य और शरीर तो शून्य है ही है उस समय। अब कौन बचा उस समय? मैं। तो जब आप सो के उठे तो आप बोलते हैं।

सुखमहमस्वाप्सम्।
आज तो मैं बड़े सुख से सोया

न किंचिदहमवेदिषम्।
मैंने कुछ अनुभव नहीं किया, आराम से सोया।

यथा प्रियया स्त्रिया सम्परिष्वक्तो न बाह्यं किञ्चन वेद नान्तरमेवमेवायं पुरुषः प्राज्ञेनात्मना सम्परिष्वक्तो न बाह्यं किञ्चन वेद नान्तरम्॥

(बृहदा. ४-३-२१)


वेद कहता है कि जैसे कोई घोर कामी पुरुष, घोर कामयुक्त स्त्री का आलिंगन करे और घोर कामयुक्त हो तो वो मूर्छित हो जायेंगे दोनों। तो मूर्छित अवस्था में फिर उनको न काम का होश रहेगा, न कामिनी और न पुरुष का, न स्त्री का, न आलिंगन का, सब हाथ-पैर ढीले हो के मूर्छित हो जायेंगे। इस प्रकार गहरी नींद में परमात्मा जीवात्मा का आलिंगन करता है तो उस आनन्द में जीवात्मा सब कुछ भूल जाता है। परमात्मा को भी भूल जाता है, संसार को भी भूल जाता है। केवल एक पर्सनैलिटी रह जाती है, इसी को सुषुप्ति अवस्था कहते हैं। ये वेद के अनुसार बता रहा हूँ। 

जो आप कहते हैं बड़ा आनन्द आता है जी। बगल में लड़का लेटा था, उसको चिपटाये थे पहले। लेकिन जब वो गहरी नींद आई तो भाड़ में जाये। वो आनन्द आया फिर वो मर भी गया लड़का। बीमार था? हाँ जी, गहरी नींद में सो रहे हैं क्योंकि हमको तो श्यामसुन्दर का आलिंगन मिल रहा है, ये कूड़ा-कबाड़ा की कौन परवाह करे। बगल में बाप लेटा हो, माँ लेटी हो, बीबी लेटी हो, बेटा लेटा हो। कौन परवाह करता है इनकी? तो सुषुप्ति अवस्था में केवल आत्मा है, वहाँ मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ कोई नहीं हैं। इसका मतलब ये हुआ कि 'मैं' नाम की चीज शरीर नहीं है। ये हम लोगों का अनुभव भी बता रहा है, शास्त्र-वेद की भी आवश्यकता नहीं है।

तो एक 'हम' आत्मा असली और एक 'हम' शरीर नकली। अब इन दोनों का विषय क्या है? 'हमारे दो' का अर्थ कीजिये। हम दो' मैंने बताया अब 'हमारे दो'। अब असली 'हम' का हमारा कौन? और नकली 'हम' का हमारा कौन? इतना और समझ लीजिये। असली 'हम' माने आत्मा उसका हमारा कौन? जिसका 'हम', वो हमारा। बड़ी सीधी सी बात है। ये 'हम' 'मैं' आत्मा किसका है? ये 'हम' 'मैं' आत्मा किसका है? या स्वतंत्र है ऐसे ही? नहीं, नहीं!

चिन्मात्रं श्रीहरेरंशं सूक्ष्ममक्षरमव्ययम्।
वेद कहता है ये भगवान् का अंश है।

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः: सनातनः।
(गीता १५-७)

ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन अमल सहज सुख राशी॥

ये भगवान का अंश है। ठीक। तो ये 'हम' किसका है? भगवान् का। इसलिये 'हम' का कौन होगा? भगवान्। बस सीधी सी बात तो है, गधा भी समझ ले। जिसका हम, वो हमारा। हर एक अंश, अंश का होता है। देखिये! मान लीजिये ये मिट्टी का ढेला है। ये मिट्टी का ढेला, इसका कौन है ? जिसका ये है। ये मिट्टी का ढेला किसका है? पृथ्वी का अंश है। इसलिये इसका कौन होगा ? पृथ्वी। ये जब पृथ्वी में मिल जाएगा मिट्टी का ढेला, तो अनंत हो जायगा, परिपूर्ण हो जायगा। जैसे नदियाँ आती हैं, समुद्र में मिल जाती हैं, परिपूर्ण हो जाती हैं। 


तो जीव परमात्मा का अंश है, भगवान् का अंश है इसलिये असली 'हम' का हमारा? परमात्मा ! फिर नकली 'हम' और असली 'हम' में एक बड़ा भारी अन्तर मैंने बताया, भूलियेगा नहीं। असली 'हम' दिव्य है, चिन्मय है, नित्य है और नकली 'हम', मानव शरीर, अनित्य है, प्राकृत है, मैटीरियल है, नश्वर है। इसलिये ये किसका है नकली 'हम'? नकली 'हम' का अंशी है पंचमहाभूत। ये संसार सम्पूर्ण विश्व माया का बना है। माया का ही विकार इसको 'हम' पंचमहाभूत बोल रहे हैं। प्रकृति, महान्, अहंकार, पंचतन्मात्रा, पंचमहाभूत ये क्रम है सृष्टि का और इसी क्रम में प्रलय होता है। पंचमहाभूत पंचतन्मात्रा में मिल गये, फिर पंचतन्मात्रा अहंकार में मिला, अहंकार महान् में मिला, महान् प्रकृति में मिला, प्रकृति भगवान् में मिल गई।

योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम्॥
(भाग. २-९-३२)

एक भगवान् बचा। फिर जब सृष्टि करना हुआ तो भगवान् ने दृष्टि किया, प्रकृति के ऊपर दृष्टि-

स ईक्षत।
स ईक्षान् चक्रे।

उसने देखा। प्रकृति में हलचल पैदा हो गई। फिर भगवान् ने संकल्प किया कि अनंतकोटि जीव जो मेरे महोदर में पेंडिंग में पड़े हैं वो प्रकृति के अन्डर में सृष्टि में चलें। ऑर्डर! जैसे आज क्रिकेट बंद हो गया, शाम हो गई तो कल जब क्रिकेट शुरू होगा सब अपनी-अपनी जगह खड़े हो जायेंगे। बैट्समैन अपनी जगह पर, बौलर अपनी जगह पर, फील्डर सब अपनी जगह पर और अलार्म होगा, बस खेल शुरू।

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